
न्यूज़ खबर इंडिया संवाददाता (अर्पिता)
जौनपुर चन्दवक। एक ओर सरकार महिला सुरक्षा और सशक्तिकरण के दावे करती हैं, तो दूसरी ओर चन्दवक बाजार में सड़क किनारे एक यात्री प्रतीक्षालय में बैठी एक मां की कहानी उन दावों को आईना दिखा रही है। ढाई साल की मासूम बेटी को गोद में लिए यह महिला पिछले दो महीने से उसी प्रतीक्षालय को अपना ठिकाना बनाए बैठी है। जहां न बिस्तर है, न छत की सुरक्षा। पेट भरने को कभी बिस्किट तो कभी दुकानदारों की दया-दृष्टि पर निर्भर रहना पड़ता है।
*विवाह से बर्बादी तक की कहानी*
महिला ने अपने आंसुओं के बीच बताया कि उसकी शादी 2005 में हुई थी। शुरुआत में सब कुछ ठीक था। वह मुंबई में अपने पति के साथ रहती थी और उनके तीन बच्चे भी थे। लेकिन कोविड के दौरान वह परिवार सहित गांव लौटी, जिसके बाद उसकी तबीयत बिगड़ने लगी। बीमारी के इलाज के नाम पर उसे गांव के एक ओझा के पास ले जाया गया, जहां उसे अजीबो-गरीब दवाएं दी गईं और तंत्र-मंत्र कराया गया। डेढ़ साल के इस तथाकथित इलाज के बाद जब उसने एक बेटी को जन्म दिया, तो ससुराल वालों ने उस बच्ची की पैदाइश का दोष ओझा पर मढ़ते हुए महिला को चरित्रहीन करार दे दिया।
रात दो बजे घर से निकाला गया
जब बेटी सिर्फ आठ दिन की थी, तब एक रात महिला को ससुराल वालों ने बेरहमी से पीटते हुए घर से निकाल दिया। रातभर बच्ची को सीने से लगाए वह इधर-उधर भटकती रही। मदद की उम्मीद लेकर मायके पहुंची तो वहां पहले से अनाथ जीवन जी रही महिला को अपने ही परिजनों ने ठुकरा दिया।
यात्री प्रतीक्षालय बना एकलौती पनाहगाह
आज हालात ऐसे हैं कि वह महिला चन्दवक थाने के पास स्थित यात्री प्रतीक्षालय को ही अपना घर मान बैठी है। सामुदायिक शौचालय में नहाना, कपड़े धोना और फिर बच्ची को लेकर भोजन की तलाश में दिनभर इधर-उधर भटकना उसकी दिनचर्या बन गई है।
रिश्तों की राख और समाज की चुप्पी
महिला ने बताया कि उसके दोनों बेटे चोरी-छिपे कभी-कभार मिलने आते हैं, लेकिन बच्ची को अक्सर सिर्फ ब्रेड और बिस्किट खिलाकर सुलाना पड़ता है। दुकानदार और कुछ रहवासी कभी-कभार मदद कर देते हैं, मगर एक संपूर्ण जीवन की गरिमा और अधिकार से वह अब भी कोसों दूर है। यह कहानी न सिर्फ एक महिला की पीड़ा है, बल्कि समाज और प्रशासन की संवेदनहीनता पर एक करारा तमाचा है। जब महिला सशक्तिकरण के दावे मंचों से गूंजते हैं, तब ज़मीन पर ऐसी घटनाएं उन दावों की असलियत बयां करती हैं।